रविवार, 21 फ़रवरी 2010

झाँसी कि रानी

मेरी एक दोस्त ने जब कॉलेज में मुझसे कहा..
कि उसे समाज में लड़कियां के प्रति वातावरण असुरक्षित लगता है और उसे इस माहौल से डर लगता है..
उसकी इन बातो ने मेरी संवेदना को झकजोर दिया..
उसे जवाब देने के लिए मैंने एक कविता लिखी....

मित्र तुझे उपदेश दे सकूँ इतना अभी नहीं मै ज्ञानी,
पर लेखनिविरो को नहीं शोभती भय और कायरता कि वाणी,
चलो सुनाता हु मै तुमको तुम जैसी एक बाला कि कहानी.....

झाँसी कि रानी 
फौलादी ले मन में  इरादे, और पहन पोशाख मर्दानी,
तुफानो से बातें करती थी, अश्वारूढ़ झाँसी वाली रानी,
कुश्ती और मल्लखम्ब जैसे शौक थे उसने पाले,
सैनिक वेश श्रृंगार था उसका, गहने तलवार और भाले,
रंगशाला कि नर्तकियो को उसने हथियार चलाना सिखलाया,
माटी को बारूद बना, तोप के गोलों में ढलवाया,
प्रतिकूलता की आंधी में उसके माथे पर बल तक न आया,
जब जब उसकी भृकटी तनती, तब तब शत्रु थर्राया,
स्वतंत्रता के आवाहन को सिंहनी सिंहासन से कूद पड़ी,
मै अपनी झाँसी नहीं दूंगी कह रानी ..
फिरंगियों पर टूट पड़ी,
कफ़न का सर पे बांध के चोला रानी ने घोड़े को एड लगाई,
बच्चा बच्चा बन गया प्रहरी,
झाँसी हर हर महादेव चिल्लाई,
पीठ पर बंधा दामोदर था ,हर और कौंधती तलवारे,
दोनों हाथो से शमशीर भांजते 
रानी ने तोड़ी चक्रव्यूह की दीवारे,
असफलता से खीजता शत्रु ..
हौसलों से पस्त हुआ ,

पर हाय! दुर्भाग्य की काली बदली के पीछे 
उस महासूर्य का अस्त हुआ,
ऐसा लगता था मानो साक्षात् दुर्गा धरती से जाती थी,
न भूलना मेरे देश की बालाओं ,
जहाँ वह जन्मी, वह इसी देश की माटी थी..

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