रविवार, 21 मार्च 2010

जल

-: जल :-
 
२२ मार्च जागतिक जल दिन के उपलक्ष्य में जल की महती का वर्णन करती यह कविता....

अवकाश में पिंड कई ,
वैसा ही एक पिंड धरा,
सोचो तो किसने इसमें 
जीवन का यह रंग भरा.
इन नीरस भू रचनाओं पर 
किसने बिखराया रंग हरा.
कैसे यह सामान्य ग्रह
कहलाया माता वसुंधरा.
कौन उतर बदली से खेतों में 
अन्न रूप में लहलहाए .
कौन है जिसकी हर फुहार 
जीवन अमृत बरसाए.

तिन चौथाई भूमि पर 
उसीका साम्राज्य छाया.
जीवन का आस्वाद नमक 
भी तो इसीसे है पाया.

झरने में , नदी में 
सागर में,
घड़े सुराही गागर में,
कुंओ, कूपों नालों में ,
बान्धो, नहरों और तालों में.

इसीसे जिव- इसीसे वन,
हमारे अस्तित्व के लिए 
आवश्यक है इसका जतन,
सत्य ही तो है कथन,
जल ही है जीवन..
...................

रविवार, 7 मार्च 2010

जीवन

जीवन भर कुछ बेशकीमती पाने के लिए हम भागते रहते है,
और ऐसा कुछ पीछे छोड़ देते है, जो शायद अनमोल था.... 

जीवन

जीवन जलता जाता है,
करता चिर सुख की तलाश.
सुख जो क्षितिज सा दीखता पास 
ना दुरी ही घटती न मिटती आस.
मृग तृष्णा में मानव 
अंगारों  पर चलता जाता है..  
जीवन जलता जाता है............

भौतिकता के पीछे भागता 
बेचैन रातों में जागता,
 इर्ष्या का कांटा मन में 
पल- पल खलता जाता है .
जीवन जलता जाता है............

सभ्यता की संकुचित  होती वृत्तियाँ ,
प्रतिकूल वातावरण में 
केन्द्रित दुष्प्रवृत्तियाँ. 
स्वार्थ की काली बदली के पीछे 
मानवता का सूरज ढलता जाता है..
जीवन जलता जाता है............

चुपचाप संस्कृति भी अपने घुटने टेकती ,
खडी किनारे
विकृति को संस्कृति का 
मुखौटा ओढ़े देखती,
विभत्सता के आँचल में 
भविष्य का शैशव पलता जाता है.
जीवन जलता जाता है.......

उत्थान का पथ है कंटक ,
नभ में छाया तूफ़ान का संकट,
प्रयत्नों की उड़ान पर मनुष्य 
गिर गिर कर संभालता जाता है.
जीवन जलता जाता है............
..................................

  
 

राष्ट्र मंदिर

देश सिर्फ हवा पानी मिटटी नहीं है...
हममें  से कोई एक "मै" अकेला देश नहीं है..
हम साथ है तो देश है. यह पवित्र मंदिर है.
पर मै जग जाये तो मंदिर को खंडहर बनने में कितना समय लगता है.
राष्ट्र मंदिर
शिखर के कलश का मान संजोने 
कई पत्थर दृढ़ता से नींव में जड़े थे.
हर विप्पति के सामने सीना ताने 
अडिग बन खड़े थे.

कभी प्रश्न नहीं उठा की 
कौनसी शिला अधिक महान.
हर एक ने थाम रखा था,
अपना अपना कर्तव्य स्थान.
एक बार प्रसन्न  देवता ने 
दे दिए पत्थरों में प्राण.
अगले दिन से दृश्य बदल गया.
कुछ पत्थर अपने स्थान से 
सरक गए थे.
शब्द प्रयास से वे अपनी
श्रेष्ठता सिद्ध कर रहे थे.
अपने सबसे निचे होने का 
कुछ को रोष था.
तो कुछ को कलश के सबसे ऊपर
होने पर ही असंतोष था.
दुसरे दिन कुछ असंतुष्ट पत्थर 
चले गए हड़ताल पर.
तो बोझ से थके कुछ पत्थर 
आराम करने,
चले गए पास ताल पर.

इमारत में आ गयी थी,
कई जगह दरारें.
फिर भी टिकी थी 
बचे खुचों के सहारे.

पर जाने किस बात पर 
दो रंग के पत्थरों का 
सामंजस्य बिगड़ गया.
क़ल तक हिल मिल कर खडा पत्थर
आपस में लड़ गया.

अगले दिन मिटटी में 
एक धूमिल सा कलश पड़ा था.
चिन्हों से लगता था,
यहाँ कभी कोई भवन खड़ा था..
.................
आप इस इमारत को पहचानते है न?



  

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

नीर

नीर 
पर्वतों का वक्ष चिर 
शिला बिच निकला है नीर ..
मुड कर न पीछे देखता 
उदधि से मिलने को अधीर.
हिम्मत वह न हारता 
उंच शिखरों से भी गिर..
पर्वतों का वक्ष चिर 
शिला बिच निकला है नीर ..

चट्टानों को ध्वस्त कर 
निर्माण करता एक डगर.
द्रुत गति से वह बढ़ चला 
ज्यूँ चला हो कोई तीर.
पर्वतों का वक्ष चिर 
शिला बिच निकला है नीर ..

धाराएँ मिलती  कई ,
देती प्रवाह को गति नई.
बढ़ता करता सिंह गर्जना,
ललकारता विपत्ति को वीर.
पर्वतों का वक्ष चिर 
शिला बिच निकला है नीर ..

जल जीवन को कर अर्पित 
अस्तित्व सरिता में कर परिवर्तित.
हर पल जीवन के रक्षण को 
अब पग पग वह बढ़ता धर धीर.
पर्वतों का वक्ष चिर 
शिला बिच निकला है नीर ..

उदधि में हो कर विलीन,
अनंत हो जाता शरीर.
पुनः शिखरों से चल पड़े प्रवाह,
गौरव गाथा दोहराने फिर..
पर्वतों का वक्ष चिर 
शिला बिच निकला है नीर ..

 


गुजरात एक कलंक

गुजरात एक कलंक 
इंसान ढूंढे न मिले ,
मिले हिन्दू और मुसलमान.
राजनीती के बाजार में बिकते 
यहाँ अल्लाह और भगवान् .
भूकंप बाढ़ और सुखों में 
तड़पता गुजरात नंगों भूखों में .
बस्तियों की बर्बादी में 
आबाद हुए बस शमसान.
इंसान ढूंढे न मिले ,
मिले हिन्दू और मुसलमान...


हिन्दू का न मुसलमान का ,
लहू बहा है हिन्दुस्तान का ..
भगवे की न चाँद तारे की, 
हार हुई है भाईचारे की..

मंदिर का न मस्जिद की इमारत का,
सर झुका है जहान में भारत का..
अल्लाह की न भगवान् की,
यह प्रेरणा थी शैतान की..
ना ये धर्मयुद्ध था न जिहाद था,
ये केवल और केवल 
आतंकवाद था..


अब सोच कर क्या फायदा 
की सिलसिला कहाँ से चला था..
वो एक दौर था,
जब आग पानी में थी 
सारा गुलिस्तान जला था..
आबरू जाने से पहले  चाहिए की 
खुलें तन को ढँक दे,
नासूर बनने से पहले यही वक़्त है,
घाव पर मरहम रख दें ..

 

गाँव

गाँव 

जीवन  का सार है,
सहजता है प्यार है,
छोटे छोटे गांवो में..
बूढ़े पीपल की छाँव में..

प्रकृति यहाँ मित है,
हर पल जीवन संगीत है,
तालों में तैरती नावों में,
किसानों श्रमिकों की बाँहों में.
श्रम रूपी रक्त का यहाँ 
कण कण में संचार है.
जीवन  का सार है...........

यहाँ पत्थर को भी सन्मान है 
हर अतिथि में भगवान् है,
है झूठ में अबतक भोलापन 
सत्य की कीर्ति महान है,
खेतों में लहलहाता यहाँ 
अन्न रूप में प्राण है.
यहाँ घरों में दीवारें तो है 
पर मन में नहीं कोई  दिवार है.
जीवन  का सार है...........

सत्य है कुछ साधन नहीं 
उपलब्ध यहाँ विज्ञान के.
पर महत्त्व उनका गौण है ,
सामने आत्म गौरव और स्वाभिमान के.
जीवन के मार्ग में माना 
संकट दो चार है,
पर संतुष्टि का भाव है 
और प्रयत्नों का आधार है.

जीवन  का सार है,
सहजता है प्यार है,
छोटे छोटे गांवो में..
बूढ़े पीपल की छाँव में..

 

गुरुवार, 4 मार्च 2010

मुद्रांक

वैसे तो लोकतान्त्रिक अधिकार है, संगठित होने का. पर लोकतंत्र की आड़ में चल रहे संगठनों में कितना लोकतंत्र है?
आज हर संगठन को काम करने के लिए कार्यकर्ता तो जरुर  चाहिए. पर उसका दिमाग नहीं चाहिए. आंख मूंद कर अन्धानुकरण करनेवाले को श्रेष्ठ समझा जाता है. लोकतंत्र की आड़ में लोकतंत्र के हो रहे क़त्ल पर एक कटाक्ष..

 
मुद्रांक 

आप कहें,
मै सुनू.
पर प्रश्न न करूँ..

आप कहें,
मै करूँ .
उत्तर का दायित्व
अपने कंधे पर ले ..

आप बनायें,
मै बेचूं,
गुणवत्ता के वाद पर
सिल लू होठ,
गीटक जाऊं
उपभोक्ता का अपमान, रोष.

मै ढुंढु सत्य
आप कहे नास्तिक..
मै चाहूं परिवर्तन
आप कहे विद्रोह..

जब मै मांगु
अपनी गिरवी रखी विवेक बुद्धि,
तब आप दिखा दें
धर्म का वह मुद्रांक
जिसपर मेरे अज्ञान का
अंगूठा लगा है..

तोड़ दू वो बेड़ियाँ
जो मेरा ही स्वप्न थी.
मै जागूं उस सूर्य की तरह
दिन और रात से भेदरहित
जो की स्वयं ही दिनकर है.

करूँ घोषणा स्वतंत्रता की
तन से,
मन से,
बुद्धि से,
आत्मा से..
धर्म के मुद्रांक पर
प्रेम की कलम से
लिखूं सर्व समन्वय.
और करूँ 
विज्ञान के हस्ताक्षर..
................... 




प्रेम मेरा

प्रेम मेरा

कमल की कली में
ज्यों हो कोई भ्रंवर बंद,
प्रात ज्यों चलती है,
हौली पुरवैया मंद.
बरखा में ज्यों आये
माटी से सौंधी सुगंध,
वैसा ही कोमल पावन
सावन सा है प्रेम मेरा.
शाखों के दल पर 
अंकित तुहिन बिंदु सा,
क्षितिज तक फैले 
अपार अगाध सिन्धु सा,
दुर्लभ से अनंत तक
विस्तृत है प्रेम मेरा,  
चाह नहीं किसी विशिष्ठ की,
चाह नहीं बांधू सेहरा.
प्रेम की कल्पना
लिए नहीं कोई चेहरा.
कल्पनाओं से भी जो है कहीं  गहरा
हाँ वो ही तो है प्रेम मेरा ..