रविवार, 7 मार्च 2010

राष्ट्र मंदिर

देश सिर्फ हवा पानी मिटटी नहीं है...
हममें  से कोई एक "मै" अकेला देश नहीं है..
हम साथ है तो देश है. यह पवित्र मंदिर है.
पर मै जग जाये तो मंदिर को खंडहर बनने में कितना समय लगता है.
राष्ट्र मंदिर
शिखर के कलश का मान संजोने 
कई पत्थर दृढ़ता से नींव में जड़े थे.
हर विप्पति के सामने सीना ताने 
अडिग बन खड़े थे.

कभी प्रश्न नहीं उठा की 
कौनसी शिला अधिक महान.
हर एक ने थाम रखा था,
अपना अपना कर्तव्य स्थान.
एक बार प्रसन्न  देवता ने 
दे दिए पत्थरों में प्राण.
अगले दिन से दृश्य बदल गया.
कुछ पत्थर अपने स्थान से 
सरक गए थे.
शब्द प्रयास से वे अपनी
श्रेष्ठता सिद्ध कर रहे थे.
अपने सबसे निचे होने का 
कुछ को रोष था.
तो कुछ को कलश के सबसे ऊपर
होने पर ही असंतोष था.
दुसरे दिन कुछ असंतुष्ट पत्थर 
चले गए हड़ताल पर.
तो बोझ से थके कुछ पत्थर 
आराम करने,
चले गए पास ताल पर.

इमारत में आ गयी थी,
कई जगह दरारें.
फिर भी टिकी थी 
बचे खुचों के सहारे.

पर जाने किस बात पर 
दो रंग के पत्थरों का 
सामंजस्य बिगड़ गया.
क़ल तक हिल मिल कर खडा पत्थर
आपस में लड़ गया.

अगले दिन मिटटी में 
एक धूमिल सा कलश पड़ा था.
चिन्हों से लगता था,
यहाँ कभी कोई भवन खड़ा था..
.................
आप इस इमारत को पहचानते है न?



  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें