शुक्रवार, 5 मार्च 2010

नीर

नीर 
पर्वतों का वक्ष चिर 
शिला बिच निकला है नीर ..
मुड कर न पीछे देखता 
उदधि से मिलने को अधीर.
हिम्मत वह न हारता 
उंच शिखरों से भी गिर..
पर्वतों का वक्ष चिर 
शिला बिच निकला है नीर ..

चट्टानों को ध्वस्त कर 
निर्माण करता एक डगर.
द्रुत गति से वह बढ़ चला 
ज्यूँ चला हो कोई तीर.
पर्वतों का वक्ष चिर 
शिला बिच निकला है नीर ..

धाराएँ मिलती  कई ,
देती प्रवाह को गति नई.
बढ़ता करता सिंह गर्जना,
ललकारता विपत्ति को वीर.
पर्वतों का वक्ष चिर 
शिला बिच निकला है नीर ..

जल जीवन को कर अर्पित 
अस्तित्व सरिता में कर परिवर्तित.
हर पल जीवन के रक्षण को 
अब पग पग वह बढ़ता धर धीर.
पर्वतों का वक्ष चिर 
शिला बिच निकला है नीर ..

उदधि में हो कर विलीन,
अनंत हो जाता शरीर.
पुनः शिखरों से चल पड़े प्रवाह,
गौरव गाथा दोहराने फिर..
पर्वतों का वक्ष चिर 
शिला बिच निकला है नीर ..

 


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