सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

सिद्धांत

हर व्यक्ति के कुछ सिद्धांत होते है,
मेरे भी है ,
उनकी व्यावहारिकता को परखते  हुए 
परिभाषित  करने का एक प्रयास... 
सिद्धांत 
मेरा कौतहुल यह समुद्र,
जिसकी मायावी मनमोहक लहरें 
बहा ले जाती है 
तलवों तले की रेत ...
धंसने लगते है पग वहीँ 
जहाँ दबे है इसी विध असंख्य प्रेत,
पर मेरे पैरों तले की जमीन 
नहीं असंगठित और कमजोर.
जिस शिला पर मै हु खड़ा 
सैद्धांतिक सुसुत्रता से गठित उसका पोर पोर .
यह चट्टान हर थपेड़े के सामने 
अपनी व्यहवारिकता परखती 
चुपचाप खड़ी है...
वह काल प्रवाह में अवक्षयित हो रही है 
या कमजोर हिस्से गल कर 
शुद्ध स्वरुप में परिष्कृत हो रही है 
मै नही जानता ...
अगर कमजोर होगी 
तो  एक दिन जरुर रहेगी ढहकर.
उसदिन शायद मै भी मिट जाऊं 
अस्तित्व विहीन होकर..
इसीलिए बदल सकता हूँ चट्टान 
जागृत होने के संग ज्ञान,
पर रेत चट्टान का पर्याय नहीं हो सकती,
अज्ञान से हारकर मेरी हस्ती,
इतनी सरलता से नहीं खो सकती..
यह भी तो संभव है,
कोई शक्तिशाली लहर 
उखाड़ दे मेरे क़दमों को,
मुझे खिंच ले समुद्र अपने साम्राज्य में..
तो क्या मै केवल इसीलिए डूब जाऊँगा 
क्यूंकि मै तैरना नहीं जानता,
क्यूँ भूलता हु मै कि,
मै डूबना भी तो नहीं जानता... 

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