बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

फांसी

दूसरों पर इल्जाम लगाना बहुत आसान है..
पर खुद कि गलतियों को 
हमसे बेहतर कौन जानता है..
पर हम उन्हें कभी नहीं मानते.

 
फांसी

क्या हममें  है साहस
स्वयं को कटघरे में लाने का.
अपने मन को बना न्यायाधीश 
अपनी मानसिकता पर 
मुकदमा चलाने का.
क्या आत्मा कि अदालत में 
हम कर सकते है अपनी त्रुटियों को स्वीकार.
या स्वयं को धोखा दे 
करते रहेंगे निरर्थक इनकार.
हम स्वयं जानते है 
अपना बनावटी व्यहवार.
पर अंधा अहम् हमारा 
नहीं सत्य मानने को तैयार.
तरह तरह के तर्क देता है,
कहता है मै हूँ निर्दोष.
पर मुर्ख ये नहीं जानता 
अहम् स्वयं होता है दोष.
कर्म जो कि किये गए 
पर थे केवल मात्र प्रदर्शन
कैसे फलित हो सकते है 
जब तक न हो भाव समर्पण 
आवश्यकता है कि मन टटोल 
ढूंढ़ निकालें वह विकृतियाँ..
जिनसे प्रेरित होती है 
हमारी कुछ असामान्य कृतियाँ ..
मन में शक्ति जगानी होगी 
आब फैसला सुनाने की,
अपनी विकृत मानसिकता को
मृत्यु तक फांसी पर लटकाने की..
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