बुधवार, 7 अप्रैल 2010

धिक्कार

मेरे युवा दोस्तों के नाम 


धिक्कार  

दुश्मन सरहद पर मुल्क के हिस्से काटे,
नक्सलवाद देश को अन्दर से बांटे,
रिश्वत दीमक बन व्यवस्था की जड़े चाटे,
नौकरशाही जनता के सर चढ़ कर नाचे,
पर हमारा युवा क्या करे ,
वो बेचारा हताश , लाचार, बेरोजगार.
देश की सोचने को है न दिल्ली में सरकार.
हमारे नुक्कड़ पर सिटी बजाते युवक को तो,
क़ल वाली लड़की का इंतज़ार है.

ऐ युवक तेरे ऐसे यौवन पर धिक्कार है..
गरीबी हमारे देश को एड्स की बीमारी है,
पश्चिम कहता है भूखों नंगों का यह देश भिखारी है,
कर्ज के बोझ से देश की कमर टूटी है,
फांसी लगा कर झूल रहा है किसान,
देश की किस्मत फूटी है.
ऐसे में तुम सड़कों पर धूम मचाओ ,
सिगरेट के छल्ले उडाओ.
बात बेबात तुम्हारा दिल गीली सुखी पार्टी को तैयार है,

ऐ युवक तेरे ऐसे उल्हास पर धिक्कार है.

तुम पढो यहाँ , बढ़ो यहाँ ,
और जब सक्षम हो जाओ,
तो देश छोड़ चले जाओ,
प्रगत देशों की प्रगति में, और हाथ लगाओ,
ऐ.सी. कमरों में बैठ अपनी मिटटी को गाली दो,
तुमने कभी नाही चाहा दीप बन जलो,
और अपने देश को दिवाली दो,
एहसान फरामोश ये प्रतिभाएं 
मातृभूमि की गद्दार है,

ऐ युवक तेरी ऐसी शिक्षा पर धिक्कार है....
देश बिकता है बिक जाए ..तुम्हे क्या?
लुटता है लुट जाए ..तुम्हे क्या?
कश्मीर और सिक्किम से तुम्हे क्या?
घुट जाए बचपन निठारी में,
मारे जाते रहे अन्नदाता 
शिन्गुर की गोला बारी में,  
तुम्हे क्या?

एक बियर की बोतल की खातिर 
तुम किसी का भी झंडा उठा लोगे, 
धर्म के ठेकेदार कहेंगे तो 
बन्दुक, तलवार और डंडा उठा लोगे,
ऑंखें बंद कर तुम बस्तियों में
आग लगा दोगे,

तुम जरुर इतिहास के दामन पर
दाग लगा दोगे..
अगर यही तेरी सभ्यता 
और यही तेरे संस्कार है,

ऐ युवक तेरे ऐसे अस्तित्व पर धिक्कार है...
हम खेलों में फिस्सडी,
तकनीक में फिस्सडी,
दुनिया मंगल चाँद पर 
बस्ती बसाने की तैयारी में है,
हमारी सोच अब भी बंद 
चार दिवारी में है...

ज़ात, धर्म, भाषा,
जाने किन -किन में हम बंटे है,
अमन की चादर के तो पैबंद भी फटे है.
दिलों में नफरत की इतनी दुरी है,
लगता है एक मुल्क में रहना, हमारी मज़बूरी है.

इसके बावजूद कुछ पागल 
बार बार कहते है..
हम दुनिया को रास्ता दिखने वाले देश है,
ये बुद्ध, गाँधी , महावीर का परिवेश है.
यह अशोक, चन्द्रगुप्त,अकबर जैसे राजाओं की भूमि है,
पाणिनि, पतंजलि, भास्कराचार्य,शुस्रुत, आर्यभट 
ने यहाँ विज्ञानं की नींव ढुंढी है,
वो मुर्ख कहते है...
तिलक, सावरकर, आजाद, भगतसिंग, 
बोस ने इस मिटटी को खून से सींचा है..
वसुधैव कुटुम्बकम: का ध्वज भी
हमसे ही ऊँचा है...

हम होंगे कामयाब..कहने वालों को 
हमारी नपुंसक युवा पीढ़ी से अब भी आस है.
वो समझते है 
इतिहास कागजों पर लिखा जाता है 
मै कहता हूँ बकवास है.

संकल्प की कलम में 
नस्लों की श्याही भी कम पड़ जाती है..
जब ले लेती है एक पूरी पीढ़ी मिटने की सौगंध,
तब कहीं इतिहास की
प्रस्तावना लिखी जाती है..

मुल्क का मुस्तकबिल बनने जो 
मिटने को तैयार है,
 उनका स्वागत सत्कार है,
बाकि बचे ऐ युवकों...
तुम्हारे जीवन पर धिक्कार है.



 

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत शानदार रचना है ॰॰॰ आक्रोश, व्यथा, व्यंग ॰॰॰॰ सभी पहलुओं के समावेश के साथ दिशा देती यह रचना " धिक्कार " लाजवाब रचना है ॰॰॰॰॰ प्रभाकर मिश्रा जी शुभकामनायें

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  2. आपने आज के समाज को दर्पण दिखाया है आपकी रचना लाजवाब है
    बधाई

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