प्रेम मेरा
कमल की कली में
ज्यों हो कोई भ्रंवर बंद,
प्रात ज्यों चलती है,
हौली पुरवैया मंद.
बरखा में ज्यों आये
माटी से सौंधी सुगंध,
वैसा ही कोमल पावन
सावन सा है प्रेम मेरा.
शाखों के दल पर
अंकित तुहिन बिंदु सा,
क्षितिज तक फैले
अपार अगाध सिन्धु सा,
दुर्लभ से अनंत तक
विस्तृत है प्रेम मेरा,
चाह नहीं किसी विशिष्ठ की,
चाह नहीं बांधू सेहरा.
प्रेम की कल्पना
लिए नहीं कोई चेहरा.
कल्पनाओं से भी जो है कहीं गहरा
हाँ वो ही तो है प्रेम मेरा ..
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