राह में भीड़
हर पड़ाव पर भीड़
भीड़ सपनों की,
भीड़ अपनों की,
जाने क्यूँ सफ़र में
है फिर भी तन्हाई .....
मंदिरों में पत्थर के बुत,
कार्यालय में कागज के पुलिंदे,
घर में सुविधाजनक उपकरण,
बड़े दिन हुए
माँ ने पीठ नहीं थपथपाई....
ऑफिस से घर तक
चौखट और दीवारें ,
जहाँ से बाहर
ना दे सुनाई और दिखाई.
बड़े दिन हुए ,
दोस्तों के साथ टपरी पर
चाय की चुस्की नहीं लगाईं...
माथे पर बल,
तनी हुई भौहें,
रंज तंज की बातें,
महत्वपूर्ण बातें,
बड़े दिन हुए
बेबात के ठिठौली नहीं उड़ाई...
बेरंग से रंग,
कभी फितरत के
कभी सीरत के,
कुदरत के रंग जाने क्यों रूठे है,
इस बार होली में वो बात नहीं आई ..
जिंदगी की दौड़-धुप में जाने कहाँ कहाँ भटकते फिरते हैं हम... फिर भी भीड़ से हटकर कुछ करने का जज्बा मन में हमेशा बनाने से ही भीड़ से कुछ अलग हुआ जा सकता है.. यह कठिन तो होता है लेकिन कोशिश चलती रहनी चाहिए
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लगी आपकी यह रचना..
बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनायें!