बैसाखियाँ सभी ने बांटी,
काश किसी ने दी होती
पैरो में चलने की जान..
मिटटी के चूल्हे में
दिल जल रहा था...
उबल रहे थे अरमान ..
तभी आदिवासी के दरवाजे पर दस्तक हुई,
आये थे एक और समाज सेवक मेहमान..
जुबान से शहद टपकाते
पूरी झोपडी में नज़र घुमाते
हर जरुरत को भांपा ..
हर दर्द की गहराई को
कागज पर नापा ...
जाते जाते समाज सेवक ने
विश्वास से कहा
आप पिछड़े है
हम आपका करेंगे सुधार..
दर्द खुली इज्जत सा बिखर गया ,
बेबस गरीबी का
फिर हो गया बलात्कार....
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