भ्रष्टाचार की फितरत बदलिए
यह एक ऐसा अचार है जिसे खाता हर कोई है, पर पूछो तो कहते है खट्टा है नहीं खाना चाहिए. जब अरबों खरबों के भ्रष्टाचार की खबर आती है तो देश की आधी आबादी जो दो वक़्त के खाने को तरसती है, दिल ही दिल में कुढ़ के रह जाती है. पर जब दस की नोट दे कर गाँव में कोई सरकारी दाखला लेना हो तो कोई हर्ज नहीं. नेताजी से जब यही लोग किसी उत्सव का चंदा लेने पहुँचते है तो पचास हजार से कम नहीं मांगेंगे, क्या पता नहीं है यह पैसा कहाँ से आता है. सब चलता है...लोकसहभाग की योजनाओ में हमेशा लोगो का हिस्सा कोई ना कोई ठेकेदार भरता है ..पर अगर लोकनिर्माण की गुणवत्ता कमजोर है तो भ्रष्टाचार हो गया. स्कूल में ट्युशन, एडमिशन को डोनेशन से लेकर नौकरी पाने को गर्म की गयी जेबों तक हर कोई भ्रष्टाचार कर रहा है. इसीलिए तो किसी में इतना नैतिक साहस नहीं की छाती ठोक के भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद कर सके. भ्रष्टाचार छोटा बड़ा नहीं होता ... आचरण भ्रष्ट है तो वो भ्रष्ट ही कहलायेगा. हम में से हर एक के जहन में एक सुरेश कलमाड़ी बैठा है. बस फर्क इतना है हमें छोटे मौके मिले तो हमने छोटे भ्रष्टाचार किया, कुछ लोगो को बड़ा मौका मिला तो उन्होंने देश को बड़ा चुना लगा दिया. पर फितरत तो एक ही है. पद पर बैठे मुख्यमंत्री बदले जा सकते है, फितरत बदलना मुश्किल है. बाहर बैठे भ्रष्टाचार को गाली देने में क्या वीरता है, अगर हम बहादूर है तो जरा अपने आप से भ्रष्टाचार को बाहर निकालिए.