गुरुवार, 4 मार्च 2010

मुद्रांक

वैसे तो लोकतान्त्रिक अधिकार है, संगठित होने का. पर लोकतंत्र की आड़ में चल रहे संगठनों में कितना लोकतंत्र है?
आज हर संगठन को काम करने के लिए कार्यकर्ता तो जरुर  चाहिए. पर उसका दिमाग नहीं चाहिए. आंख मूंद कर अन्धानुकरण करनेवाले को श्रेष्ठ समझा जाता है. लोकतंत्र की आड़ में लोकतंत्र के हो रहे क़त्ल पर एक कटाक्ष..

 
मुद्रांक 

आप कहें,
मै सुनू.
पर प्रश्न न करूँ..

आप कहें,
मै करूँ .
उत्तर का दायित्व
अपने कंधे पर ले ..

आप बनायें,
मै बेचूं,
गुणवत्ता के वाद पर
सिल लू होठ,
गीटक जाऊं
उपभोक्ता का अपमान, रोष.

मै ढुंढु सत्य
आप कहे नास्तिक..
मै चाहूं परिवर्तन
आप कहे विद्रोह..

जब मै मांगु
अपनी गिरवी रखी विवेक बुद्धि,
तब आप दिखा दें
धर्म का वह मुद्रांक
जिसपर मेरे अज्ञान का
अंगूठा लगा है..

तोड़ दू वो बेड़ियाँ
जो मेरा ही स्वप्न थी.
मै जागूं उस सूर्य की तरह
दिन और रात से भेदरहित
जो की स्वयं ही दिनकर है.

करूँ घोषणा स्वतंत्रता की
तन से,
मन से,
बुद्धि से,
आत्मा से..
धर्म के मुद्रांक पर
प्रेम की कलम से
लिखूं सर्व समन्वय.
और करूँ 
विज्ञान के हस्ताक्षर..
................... 




2 टिप्‍पणियां:

  1. करूँ घोषणा स्वतंत्रता की
    तन से,
    मन से,
    बुद्धि से,
    आत्मा से..
    धर्म के मुद्रांक पर
    प्रेम की कलम से
    लिखूं सर्व समन्वय.
    और करूँ
    विज्ञान के हस्ताक्षर..
    ...................
    ----बहुत सुन्दर, प्रभाकर, यही सम्यग-द्रिष्टि है जो वस्तुतः वैदिक, भारतीय सनातन - धर्म, मानव धर्म की, मानवता की वास्तविक रीढ है ।

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